मलेरिया से ज्वर कराने के लिये भी मिला है नोबल पुरस्कार
1927 में शरीरक्रिया विज्ञान दवा के लिये नोबल पुरस्कार ऑस्ट्रिया के चिकित्सक जूलियस वेगनर जौरेग को दिया गया था। यह पुरस्कार मलेरिया के चिकित्सीय प्रयोग से डिमेन्शिया पैरालिटिका (Dementia Paralytica) के उपचार के लिये दिया गया था। डा. बैगनर जीरेग अपनी शोध यात्रा के दौरान बुखार से मानसिक रोगों के निदान का प्रयास करते रहे। उनका मानना था तीव्र ज्वर से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता शरीर के रोगों को समाप्त कर सकती है। ज्वर, मूलता शरीर में, रोगाणुओं से हमले में बचाव की प्रक्रिया का ही अंग है। इसे पाइरोथिरेपी या ज्वार चिकित्सा पद्धति कहा गया है।
सिफिलिस (Syphilis, जर्मन, हिन्दी में फिरंग या उपदेश) मूलतः यौन सम्पर्कों से फैलने वाला एक रोग है जो ट्रिपोनेमा पैलिडम बैक्टीरिया के कारण होता है। तीसरी श्रेणी का सिफिलिस, संक्रमण के 3 से 15 वर्ष बाद प्रकट हो सकती है। इस अवस्था में एक गुमा (फूला हुआ घाव) बन जाता है। इस अवस्था में जब संक्रमण केन्द्रीय तंत्रिका तन्त्र को प्रभावित करने लगता है तो इसे न्यूरोसिफिलिस कहते हैं। इससे डिमेन्शिया भी हो सकता है। डिमेन्शिया में मानसिक संतुलन बिगड़ने लगता है और स्मरण शक्ति कम होने लगती है। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ज्वर से मानसिक बीमारियां ठीक करने का सिद्धान्त जोर पकड़ने लगा था। इस समय जीरंग ने कई सारे ज्वर कराने के तरीके आजमाये पर उनको सफलता नहीं मिली। तब उनका तर्क था कि ज्वर इतना तीव्र नहीं था कि वह सफल हो पाये। बाद में उन्होंने मलेरिया से पीड़ित व्यक्ति का रक्त न्यूरोसिफिलिस से पीड़ित 9 व्यक्ति को दिया जिसमें से छः रोगियों में सुधार होने लगा। इस प्रयोग के बाद मलेरिया से चिकित्सा की पद्धति सन् 1917 से 1940 तक पूरे यूरोप एवं उत्तरी अमरीका में फैल गयी। हजारों न्यूरोसिफिलिस के रोगी मलेरिया से संक्रमित कराये गये। इसमें प्लाज्मोडियम फल्सीपैरम के बजाय प्लाज्मोडियम वाइवैक्स का प्रयोग किया जाता रहा, क्योंकि प्लाज्मोडियम फैल्सीपैरम कई बार जानलेवा साबित हुआ।
वैगनर जौरेग को इस चमत्कारी पद्धति की खोज के लिये 1927 में नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ऐसा माना जाता है कि तेज बुखार से शरीर की क्रिया प्रणाली बैक्टीरिया का नाश करने में सफल हो जाती है। बाद में पेनिसिलीन के आविष्कार के बाद इस पद्धति की आवश्यकता ही नहीं रही।